रविवार है तो साईकलिंग, दोस्त, किस्से कहानियाँ। सुबह उठा भूख लग रही थी तो एक से सेब खाया और निकल या साइकिलिंग को।
सेब एक अच्छा फल है, मैं जब भी सफर पर जाउँ तो सेब ओर अमरूद साथ रखता हूँ।
आज धुंध थी, सूरज देवता भी बादलों के पीछे छिपे थे। मैं देख रहा था आज साइकिलिंग करने बहुत सारे लोग आए हुए थे। कुछ लोग व्यायम कर रहे थे । मैनें कुछ फोटोग्राफ खींचें।
आज चाय के अड्डे पर भीड़ थी । भीम सिंह बिष्ट , हमारे चाय के अड्डे के कर्ता धर्ता हैं। लोग उन्हें प्यार से "भीम दा" कहते हैं। जहां पहाड़ में बड़ों के नाम के साथ "दा" लगाया जाता है। बंगाली में बड़े भाई भाई को "ददा" कहा जाता है।
मैं देख रहा था कि वहां पर ब्रेड के पॉलिथीन पड़े हुए थे । मुझे याद आ गया था कि इस कूडे कर्कट से, कबाड़ से चंडीगढ़ में रॉक गार्डन बना है। रॉक गार्डन चंडीगढ़ में नेक चंद जी द्वारा भी बनाया गया है। मैं कई बार वँहा गया हूँ।
इसकी भी एक बहुत दिलचस्प कहानी है। नेक चंद जी का जन्म बाडियाँ कलां में हुआ जो कि अब पाकिस्तान में है । 1947 के बटवारे के बाद वो भारत आ गये। फिर पढ़ लिखकर PWD में रोड इंस्पेक्टर बने। इसके बाद जब चंडीगढ़ बनना शुरू हुआ उनकी नौकरी चंडीगढ़ लग गई। सुखना लेक के पास उनको सड़क बनाने का कार्य सौंपा गया। वह नौकरी करते रहे। फिर शहर बस गया।
लोगों ने कबाड़ जंगल में फैंकना शुरू किया। नौकरी करते करते वो अपने कल्पना जगत में रहने लगे। नौकरी करने के बाद फिर शाम को जंगल में चले जाते वहां पर शहर का जो कूड़ा करकट था उससे उन्होंने नगर की स्थापना की।
इसी दौरान उनका एक बेटा जो ढाई साल का था वो एक बार बिमार हो गया, डाक्टर के पास पहुंचते पहुंचते ही उसकी मौत हो गयी।
वो फिर निराश ना होकर अपनी सारी ऊर्जा को उस राक गार्डन को बनाने में जुट गये। लगभग 15 साल तक वो ये कार्य अकेले ही जंगल में करते रहे। ये बात उनके घर वालों को भी नहीं पता थी।
रात को साइकिल के टायर को जलाकर वो जंगल में रोशनी करते और मच्छरों बचने के लिए एक बोरी को सिर पर बाँध लेते। पास ही बहती हुई नदी अलग अलग तरह के नायाब पत्थर ढूंढ कर लाते थे जिस पर कोई ना कोई बुत होता।
फिर किसी अधिकारी ने देखा तो इस जगह को आम लोगों के खोल दिया गया और नाम रखा गया राक गार्डन। तब ये 12 एकड़ मे बना हुआ शहर था, अब 40 एकड़ में फैल चुका है।
टिकट खरीद कर जब हम अंदर जाते हैं तो दरवाजे इस तरह बनाये गये हैं कि आपको झुक कर जाना पड़ता है, ये राजा का सम्मान है। नेक चंद जी ने इसे देवी देवताओं की नगरी का नाम दिया ।
रानियों का महल के नहाने का हमाम बनाया गया है जो कि उँचाई पर है, वहाँ से रानियाँ नीचे बने दीवाने आम को देख सकती थीं पर उनको कोई नहीं। उँचाई पर राजा का महल है, वँहा एक झरना है।
दूसरे फेस में आम लोग बनाए गये है, उनका जन जीवन। कुँआ , यँहा से औरतें पानी भरती थी। पहाड़ पर आम लोगों के छोटे छोटे मकान बने हैं , जिनकी छत्तें टूटे हुए घडों से बनी हुई है।
फिर तीसरा फेज। बना है जिसमें डॉल गार्डन है , झूले बने है, फिश अक्येरम है, ऐसे शीशे हैं कि उनमें देखने से हमारा चेहरा लंबा दिखाई देता है जिसे देखकर हँसी आती है। सूखे हुए सीमेंट की बोरियों से उँची ऊँची दीवारें बनी हुई हैं।
इसमें टूटे हुए चीनी के बर्तन, टूटी हुई चूडियाँ इत्यादि का इस्तेमाल किया गया है। इसी के लिए 1984 में पद्मश्री से नवाजा गया और दुनिया भर में लोगों को कूडे से ऐसी कलाक्रतियाँ बनाने के लिए भी गये।
सारी यदि दुनिया भर में बहुत सारा कूड़ा पैदा हो रहा है इसका सदुपयोग करने के लिए बहुत सारे साधन भी किए जा रहे हैं, पर यह बहुत तेजी से किए जाने चाहिए । अगर कूड़ा ही ऐसा पैदा हो कि वो धरती मे अपने आप जज़ब हो जाए तो क्या कहने!
आइए अभी तो जाना तेरे चलते हैं एक जेन कथा की तरफ। मार्शल आर्ट सीखने के लिए एक लड़का गुरू के पास जाता है । वो वँहा के गुरू से पूछता है कि मार्शल आर्ट सीखने में उसे
कितने साल लगेंगे?
गुरु ने उसको ऊपर से नीचे तक गौर से देखा और कहा,10 साल ।
लड़के ने फिर पूछा, कि मैं और तेजी से सीखूँ तो कितने साल लगेंगे?
गुरु ने कहा कि 20 साल ।
कबीर जी का दोहा है
धीरे धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय
माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आए फल होय
आज के लिए इतना ही।
फिर मिलेंगे ।
तब तक हंसते रहे मुस्कुराते रहे, आपका अपना रजनीश जस
रूद्रपुर, उत्तराखंड
निवासी पुरहीरां
जिला होशियारपुर, पंजाब
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