मेरा एक दोस्त है नवतेज उसे ऑस्ट्रेलिया गए हुए लगभग 25 साल हो गए है। जब भी उसने अपने दिल की बातें करनी होती है तो मुझे फोन मिला लेता है।
कल उसका फोन आया।
उसने बताया एक बार वो, उसके पिता और तीन गुरुद्वारे के पाठी कहीं जा रहे थे। उसके मन में एक सवाल आया कि, "मन जीते जग जीत" का क्या मतलब है? क्योंकि वह कहता था कभी उसकी मन धार्मिक होता है तो वह भगवान के बारे में सोचने लगता है,पर जब वह माया में लिप्त हो जाता है तो संसार में पैसा कमाने भाग जाता है।
मतलब उसका मन हमेशा द्वंद में रहता है। तो गुरुद्वारे के पाठी ने उसे एक कहानी सुनाई।
उन्होंने कहा, एक ट्रेन कहीं जा रही थी जो यात्रियों से भरी हुई थी, एक यात्री का स्टेशन आया उसके पास बहुत सारा सामान था। जब वह ट्रेन से उतरा तो उसका एक बैग वहां रह गया उसमें लगभग एक लाख ₹ थे। पर उसके साथ बैठे वाले आदमी ने देखा कि उसका बैग रह गया है तो वह तुरंत भाग कर उसके पीछे गया और उसको वह बैग लौटा दिया। दूसरा आदमी सोच रहा था कि अगर यह आदमी बैग रख लेता और ट्रेन चल जाती तोयह अमीर हो सकता था। बैग लेकर उसने शुक्रिया किया और ट्रेन चल दी।
तीन चार स्टेशन के बाद वह भी उतर गया जिसने बैग लौटाया था। वह घर जाने से पहले एक आलू खरीदने एक दुकान पर गया। उसने वहां से आलू लिए पर जब दुकानदार का ध्यान इधर-उधर हुआ तो उसने एक आलू उठाकर अपनी जेब में रख लिया।
तो पाठी ने कहा यह होता है मन ऐसा ही है वो कई बार लाखों रू ठुकरा देता है पर कई बार वही मन एक आलू की चोरी भी कर लेता है।
तो मन को जीतना बहुत बड़ी बात है।
मुझे निदा फाज़ली जी का एक शे'र याद आ गया
"मन बैरागी तन अनुरागी कदम कदम दुश्वारी है
जीवन जीना सहल न जानो बहुत बड़ी फनकारी है"
नवतेज बताने लगा कि जब वह भारत में रहता था तो तब एक बार हमसे मिलने हमारे घर पर आया। मैं और मेरे पिता गुरबख्श जस बैठे थे। तो उसे कुछ बातचीत होनी शुरू हुई। वह कॉमरेडी सोच का था। पिताजी भी पहले कामरेड थे फिर धीरे-धीरे वह ओशो को पढ़ने लग गए। मैंने भी ओशो को पढ़ा तो पिताजी का बहुत विरोध किया पर जब मैंने देखा ओशो सही है तो मैं भी ओशो को पढ़ने लगा।
नवतेज बोला," तुम और तुम्हारे पिता यह कह रहे थे कि अगर किसी कुदरत ने आदमी को बनाया है तो कहीं ना कहीं, किसी मायने में वह आदमी से तो ही बड़ी है।"
पर नवतेज का कामरेडी दिमाग का रहा था अगर कहीं भगवान है तो उसे साबित करके दिखाओ।
पर समय के साथ उसमें बहुत बदलाव आया है उसने जीवन के बहुत सारे उतार-चढ़ाव देखे हैं। उसके पास पहले बहुत सारी कार थी जो टैक्सी चलती थी। अब वह कोई अपना काम करता है।
उसने यही सवाल मुझसे भी किया," मन जीते जग जीत क्या होता है?"
मैंने कहा ," यार मन को जीतना तो एक बहुत बड़ी साधना है।"
उसने कहा," हां, यह सही है पर मन तो कहीं ना कहीं फिर भटक जाता है।"
मैंने कहा," तूने बिल्कुल सही कहा, पर यह अगर तू इस चीज़ को भी सोच रहा था कि आदमी भटक जाता है यह तेरी यात्रा का पहला कदम है। नहीं तो मैंने देखा है लोग बूढ़े हो जाते हैं पर उनकी यात्रा शुरू ही नहीं हो पाती, वह जीवन की व्यर्थता को समझ नहीं पाते।
जैसे कि मेरे गुरु रूबी बडियाल हमेशा कहते हैं,"रजनीश , लोगों की दाढ़ी सफेद हो जाती है पर रहते वह काके ही हैं।"
मतलब कि उनका दिमाग हमेशा बच्चों जैसा ही रहता है कोई मैच्योरिटी नहीं आ पाती।
अब मैं जो लिख रहा हूं यह भी माया है, आप जो पढ़ रहे हो यह भी माया है।
हमारे ग्रंथो में दर्ज है
"माया ममता मोहिनी
जिस बिन दंता जाग खाया"
इसका मतलब है," माया एक ऐसी शै है जिसका कोई दाँत नहीं पर फिर भी वह सारे जगत को खा रही है"
"अक्खी वेख ना रज्जीयां बहु रंग तमाशे
उस्तति निंदा कन्न रोवन ते हासे
सादी जीभु ना रज्जीयां कर भोग विलासे
नक ना रज्जा वासु लै दुर्गंध सुबासे
रज ना कोई कोई जीविया कूड़े भरवासे
पीर मुरीदा पीरहरि सच्ची रहरासे"
इसमें भाई गुरदास कहते हैं,
"आंखें देख देख कर थकती नहीं चाहे वो जितनी मर्जी रंग तमाशा देख ले,
कान कभी थकते नहीं चाहे कितनी ही प्रशंसा और निंदा सुन ले,
जीभ कभी थकती नहीं वह चाहे कितने ही भोग विलास कर ले,
नाक भी कभी थकता नहीं चाहे जितनी मर्ज़ी दुर्गंध या सुगंध सूंघ ले,
इस संसार में कोई भी जी भरकर नहीं जी पाया है चाहे वह जितना कूड़ा कबाड़ा देख ले, पर फिर भी उसकी और जीने की , भोगने की तमन्ना बनी रहती है
पर जो सिक्ख है वह हमेशा सहज रहता है और वो अपने गुरु के प्रति श्रद्धा, अनुग्रह के भाव से भरा रहता है"
मैनें कहा," माया को साथ तो तभी छूटता है जब कुदरत चाहती है या कोई अच्छा गुरु हमारे बाजू पकड़ लेता है तो हम इस इस संसार की माया के बंधन से छूट जाते हैं।
फिर मिलूंगा एक नये किस्से के साथ।
आपका अपना
रजनीश जस
रूद्रपुर, उत्तराखंड
निवासी पुरहीरां
होशियारपुर, पंजाब