Journey to Nizamudin, Osho Ashram Pune Part -1
आइए ले चलता हूँ आपको एक ऐसी यात्रा पर, जिसमें दिल्ली में निजामुद्दीन औलिया की दरगाह, कव्वालियां, नुसरत फतेह अली खान, कव्वाली की मस्ती ,ओशो आश्रम पुणे में मेडीटेशन का अनुभव।
पिछली यात्रा में एक बात बताना भूल गया था कि होली वाले दिन मेरे दो दोस्त विवेक पाठक और जगमीत सिंह जग्गी ने मुझे निमंत्रण दिया था, जिसने होली के लिए पर मैं वहां नहीं जा पाया उसने मेरी पकौड़े बनाकर रखे हुए हैं। यह पकौड़े फिर कभी जरूर खा जाएंगे क्योंकि यह मेरे पर उधार हैं।
पूना यात्रा, दिल्ली रेलवे स्टेशन
मैं निजामुद्दीन में कई बार आया था इस बार सोचा कि दरगाह पर जाकर आऊंगा।
यहां पर दो दरगाह है, एक निजामुद्दीन और एक अमीर खुसरो की। दोनों के बारे में कुछ जानकारी नीचे है
हज़रत निजामुद्दीन (1235-1325) एक सूफी संत थे। उनका जन्म बदायूं, यूपी में हुआ। वो बाबा फरीद जी के चेले बने। उन्होंने आध्यात्मिक ऊंँचाइयां हासिल की। ग्यासपुर दिल्ली के पास उन्होंने एक जगह " खंकाह" बनाई, यहां पर सभी को खाना खिलाया जाता था ।
अमीर खुसरो (1262-1324), निजामुद्दीन के शागिर्द थे। अमीर खुसरो का पूरा नाम अब्दुल हसन यमीनुद्दीन अमीर खुसरो था ।
एक कवि ,शायर ,गायक, संगीतकार थे। उन्होंने कव्वाली की शुरुआत की। कव्वाली के बारे में यह कहा जाता है कि वह परमात्मा को अपनी प्रेयसी मानते हैं और उसको दूर होने की वजह से उसकी जुदाई को अलग-अलग हिस्सों में वर्णन करते हैं।
कव्वाली भारतीय उपमहाद्वीप में सूफीवाद और सूफी परंपरा के अंतर्गत भक्ति की एक धारा के रूप में उभर कर आई। इसका इतिहास 700 साल से भी ज्यादा पुराना है। वर्तमान में यह भारत , पाकिस्तान एवं बंगलादेश सहित बहुत से अन्य देशों में संगीत की एक लोकप्रिय विधा है। क़व्वाली को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर पहचान दिलवाने का श्रेय उस्ताद नुसरत फतेह अली ख़ान को जाता है।
कव्वाली का जिक्र हुआ है तो नुसरत फतेह अली खान (1948-1997) के नाम के बगैर अधूरा है। मात्र 48 साल इस धरती पर रहने के बाद कव्वाली को पूरी दुनिया तक पहुंचा दिया। उनकी कव्वाली पर वे लोग भी नाचते थे जो कि कव्वाली की भाषा को नहीं समझते थे। वो इस तरह गाते थे के सुनने वाला मंत्रमुग्ध हो जाता था। उनको
"शहंशाह ए कव्वाली" के नाम से भी जाना जाता है।
कव्वाली में मिलने, बिछुड़ने का अद्भुत संगम है। उसमें अरबी ,फारसी हिंदी, उर्दू , शब्दों का इस्तेमाल होता है । उसकी अपनी ही सुर ताल होती है, जो कि तालियों से की जाती है।
मिर्ज़ा गालिब, अमीर खुसरो इतने दीवाने थे तो उन्होंने लिखा
"गालिब मेरे कलम में क्यों कर मजा ना हो
पीता हूं धोकर खुसरो ए शरीन के पांव में "
अमीर खुसरो ने खड़ी बोली की शुरुआत की जिसको बृज भाषा या खड़ी बोली भी कहते हैं।
अमीर खुसरो के कुछ दोहे यहां पेश कर रहा हूं
खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।
तन मेरो मन पियो को, दोउ भए एक रंग॥
खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार।
जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार॥
----
ट्रेन आने में अभी 3 घंटे थे। मैनें आटो पकड़ा निजामुद्दीन दरगाह के लिए। दरगाह की उस गली के बाहर तक फूलों की महक आ रही थी। मुझे एक पंजाबी लोक बोली की याद आ गई,
"जित्थे इतरां दी बसे खुशबो
उत्थे मेरा यार वसदा"
इस का मतलब यह है कि, यहां पर इत्र की खुशबू रहती है वहां मेरा यार, मेरा महबूब रहता है।
वहां से प्रसाद, फूल और अगरबत्ती खरीदी। अपना सामान छोड़कर मैं दरग़ाह की तरफ निकल गया । गली में आगे से आगे बढ़ता गया, सब बोलते रहे,भाई जान आगे और आगे। निजामुद्दीन औलिया की दरगाह यहां पर रॉकस्टार फिल्म की कव्वाली "फाया कू " की शूटिंग हुई है। (ये कव्वाली मेरे दिल के बेहद करीब है)
फिल्म "दिल्ली 6" की कव्वाली "अरजि़याँ" की शूटिंग भी यही हुई है।
यँहा हर शुक्रवार को कव्वाली होती है
दूसरी दरगाह अमीर खुसरो की भी है जिन्होंने कव्वाली की शुरुआत की थी। कव्वाली तो मैं बहुत सुनता हूँ। कव्वाली सुनने से अलग सा नशा आ जाता है । अंदर जो दरगाह है दोनों पर माथा टेका अगरबत्ती या लगाएं और फिर वापसी हो गई। निजामुद्दीन से लिए ट्रेन भी पकड़ ली थी।
दिल्ली से मैंने ट्रेन पकड़ी पुणे के लिए। उससे पहले दो मैगजीन "अहा जिंदगी "और "ओशो टाइम्स" खरीदे। यात्रा शुरू हो गई दिल्ली से पुणे की । पास बैठी फैमिली उनके साथ बातें होने लगी । हर कोई अपनी अपनी जिंदगी के किस्से सुनाने लगा। बातें होती पर राजनीति पर कोई बात आती है मैं विषय को बदल देता , क्योकिं राजनीति बहुत ही घटिया विचारों में लिप्त हो चुकी है। इससे अच्छा है आपको जिंदगी में कोई प्रकृति, संगीत, कहानी, कविता के बारे में बात करें। अगले दिन सुबह मैं पुणे पहुंच गया। वहां जाते नैशनल होटल पहुंच गया। मैनें देखा कि लड़के सुबह 7:00 बजे चाय पी रहे थे। उन्होंने मुझे चाय पीने को दी। हम तो वैसे ही चाय के शौकीन। आदमी होटल बुक किया और निकल लिए ओशो आश्रम ।
आइए ले चलता हूँ आपको एक ऐसी यात्रा पर, जिसमें दिल्ली में निजामुद्दीन औलिया की दरगाह, कव्वालियां, नुसरत फतेह अली खान, कव्वाली की मस्ती ,ओशो आश्रम पुणे में मेडीटेशन का अनुभव।
पिछली यात्रा में एक बात बताना भूल गया था कि होली वाले दिन मेरे दो दोस्त विवेक पाठक और जगमीत सिंह जग्गी ने मुझे निमंत्रण दिया था, जिसने होली के लिए पर मैं वहां नहीं जा पाया उसने मेरी पकौड़े बनाकर रखे हुए हैं। यह पकौड़े फिर कभी जरूर खा जाएंगे क्योंकि यह मेरे पर उधार हैं।
पूना यात्रा, दिल्ली रेलवे स्टेशन
मैं निजामुद्दीन में कई बार आया था इस बार सोचा कि दरगाह पर जाकर आऊंगा।
यहां पर दो दरगाह है, एक निजामुद्दीन और एक अमीर खुसरो की। दोनों के बारे में कुछ जानकारी नीचे है
हज़रत निजामुद्दीन (1235-1325) एक सूफी संत थे। उनका जन्म बदायूं, यूपी में हुआ। वो बाबा फरीद जी के चेले बने। उन्होंने आध्यात्मिक ऊंँचाइयां हासिल की। ग्यासपुर दिल्ली के पास उन्होंने एक जगह " खंकाह" बनाई, यहां पर सभी को खाना खिलाया जाता था ।
अमीर खुसरो (1262-1324), निजामुद्दीन के शागिर्द थे। अमीर खुसरो का पूरा नाम अब्दुल हसन यमीनुद्दीन अमीर खुसरो था ।
एक कवि ,शायर ,गायक, संगीतकार थे। उन्होंने कव्वाली की शुरुआत की। कव्वाली के बारे में यह कहा जाता है कि वह परमात्मा को अपनी प्रेयसी मानते हैं और उसको दूर होने की वजह से उसकी जुदाई को अलग-अलग हिस्सों में वर्णन करते हैं।
कव्वाली भारतीय उपमहाद्वीप में सूफीवाद और सूफी परंपरा के अंतर्गत भक्ति की एक धारा के रूप में उभर कर आई। इसका इतिहास 700 साल से भी ज्यादा पुराना है। वर्तमान में यह भारत , पाकिस्तान एवं बंगलादेश सहित बहुत से अन्य देशों में संगीत की एक लोकप्रिय विधा है। क़व्वाली को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर पहचान दिलवाने का श्रेय उस्ताद नुसरत फतेह अली ख़ान को जाता है।
कव्वाली का जिक्र हुआ है तो नुसरत फतेह अली खान (1948-1997) के नाम के बगैर अधूरा है। मात्र 48 साल इस धरती पर रहने के बाद कव्वाली को पूरी दुनिया तक पहुंचा दिया। उनकी कव्वाली पर वे लोग भी नाचते थे जो कि कव्वाली की भाषा को नहीं समझते थे। वो इस तरह गाते थे के सुनने वाला मंत्रमुग्ध हो जाता था। उनको
"शहंशाह ए कव्वाली" के नाम से भी जाना जाता है।
कव्वाली में मिलने, बिछुड़ने का अद्भुत संगम है। उसमें अरबी ,फारसी हिंदी, उर्दू , शब्दों का इस्तेमाल होता है । उसकी अपनी ही सुर ताल होती है, जो कि तालियों से की जाती है।
मिर्ज़ा गालिब, अमीर खुसरो इतने दीवाने थे तो उन्होंने लिखा
"गालिब मेरे कलम में क्यों कर मजा ना हो
पीता हूं धोकर खुसरो ए शरीन के पांव में "
अमीर खुसरो ने खड़ी बोली की शुरुआत की जिसको बृज भाषा या खड़ी बोली भी कहते हैं।
अमीर खुसरो के कुछ दोहे यहां पेश कर रहा हूं
खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।
तन मेरो मन पियो को, दोउ भए एक रंग॥
खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार।
जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार॥
----
ट्रेन आने में अभी 3 घंटे थे। मैनें आटो पकड़ा निजामुद्दीन दरगाह के लिए। दरगाह की उस गली के बाहर तक फूलों की महक आ रही थी। मुझे एक पंजाबी लोक बोली की याद आ गई,
"जित्थे इतरां दी बसे खुशबो
उत्थे मेरा यार वसदा"
इस का मतलब यह है कि, यहां पर इत्र की खुशबू रहती है वहां मेरा यार, मेरा महबूब रहता है।
वहां से प्रसाद, फूल और अगरबत्ती खरीदी। अपना सामान छोड़कर मैं दरग़ाह की तरफ निकल गया । गली में आगे से आगे बढ़ता गया, सब बोलते रहे,भाई जान आगे और आगे। निजामुद्दीन औलिया की दरगाह यहां पर रॉकस्टार फिल्म की कव्वाली "फाया कू " की शूटिंग हुई है। (ये कव्वाली मेरे दिल के बेहद करीब है)
फिल्म "दिल्ली 6" की कव्वाली "अरजि़याँ" की शूटिंग भी यही हुई है।
यँहा हर शुक्रवार को कव्वाली होती है
दूसरी दरगाह अमीर खुसरो की भी है जिन्होंने कव्वाली की शुरुआत की थी। कव्वाली तो मैं बहुत सुनता हूँ। कव्वाली सुनने से अलग सा नशा आ जाता है । अंदर जो दरगाह है दोनों पर माथा टेका अगरबत्ती या लगाएं और फिर वापसी हो गई। निजामुद्दीन से लिए ट्रेन भी पकड़ ली थी।
दिल्ली से मैंने ट्रेन पकड़ी पुणे के लिए। उससे पहले दो मैगजीन "अहा जिंदगी "और "ओशो टाइम्स" खरीदे। यात्रा शुरू हो गई दिल्ली से पुणे की । पास बैठी फैमिली उनके साथ बातें होने लगी । हर कोई अपनी अपनी जिंदगी के किस्से सुनाने लगा। बातें होती पर राजनीति पर कोई बात आती है मैं विषय को बदल देता , क्योकिं राजनीति बहुत ही घटिया विचारों में लिप्त हो चुकी है। इससे अच्छा है आपको जिंदगी में कोई प्रकृति, संगीत, कहानी, कविता के बारे में बात करें। अगले दिन सुबह मैं पुणे पहुंच गया। वहां जाते नैशनल होटल पहुंच गया। मैनें देखा कि लड़के सुबह 7:00 बजे चाय पी रहे थे। उन्होंने मुझे चाय पीने को दी। हम तो वैसे ही चाय के शौकीन। आदमी होटल बुक किया और निकल लिए ओशो आश्रम ।
No comments:
Post a Comment