Friday, April 12, 2019

यादें बठिंडा पालिटैक्निक की

सब कुछ वैसे का वैसा ही है
मेरा हॉस्टल वैसा ही है
बस उनमें रहने वाले
सारे के सारे बदल गए हैं
"चल यार बंक मार"
ये कहने वाले बदल गए हैं
बेदी सर की क्लास में
शायरी ही सुनाते थे
तीन पीरियड होते थे
पर एक ही निपटा जाते थे
इक सर तो दारू में डूबे रहते थे
इक लंच टाइम में कपड़े बदल
कार से साईकिल पे होते थे
इक होते थे वर्कशाप में फौजी
इक होते थे हर जगह मनमौजी
हर वक्त बेपरवाही में रहना
अब उसे "लापरवाही" कहने लग गए हैं

वह नाका का था प्रोडक्शन वाला
कोई और बैठे तो बने भूत का साला
बंक लगा के नदी में नहाते
बस ना मिलती तो बैलगाड़ी पर आते
बिना टिकट सफर करने वाले
सारे के सारे बदल गए हैं

हॉस्टल वाली मैस वो परांठे याद है
अमूल की टिक्की के साथ दूध गलास याद है डीडीएलजी के सात-सात शो
हॉस्टल के आखिरी दिन दारु पीके दिए थे रो
वह देर रात तक जागकर बातें करनी
बेसिर पैर की वह सौगातें  करनी
अब 10 बजे सुबह अलार्म लगा कर
सब के सब बदल गए हैं

कभी मुज़ाहरे, कभी लाठीचार्ज
सब कुछ सब तो आता है याद
बठिंडे वाला किला भी नहीं भूले
लाल सूट वाली के थे सौ सौ ठुमके
सिनेमा में सीटी बजाने वाले
अब कोक लेकर टहल रहे हैं

बेदी, सत्तू अमरीका बैठे
नवतेज बैठा आस्ट्रेलिया
हुन कोई बोली ना सुनावे
"क्यों उदास बैठा है बेलिया की होया जे वर्ल्ड कप हार गया ऑस्ट्रेलिया"
उल्टे सीधे हाई-फाई शेर बनाने वाले
अब तो सारे बदल गए हैं

फिर भी साल में एक बार मिलते हैं
पुराने सारे यार मिलते हैं
हाथ में जब लाल परी होती है
तो यारों के यार मिलते हैं
अंदर से वही हरकतें हैं
बाहर से चाहे बदल गए हैं

# रजनीश जस
रूद्रपर
उत्तराखंड
12.04.2019
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