Friday, April 29, 2022

फिल्म गंगूबाई

प्रेम ना बारी उपजे 
प्रेम न हाट बिकाए
राजा प्रजा जो रूचे
सीस देखे जाए

कबीर जी का यह दोहा बताता है, प्रेम किसी खेत में नहीं उगता है , ना ही किसी दुकान पर बिकता है। जिसे प्रेम चाहिए वह अपना अभिमान गिरा दे तो मिल जाएगा, चाहे वह राजा हो या प्रजा।

बहुत सारे इंसानों के अंदर प्रेम के अभाव के कारण एक वहशीपन होता है, या वो समाज के दुरकारे होते हैं, वह लोग औरत के शरीर से खेलते है, हलांकि प्रेम तो रूह का मिलन है। 
प्रेम तो देह के आकर्षण से शुरू होकर दिल तक पहुंचता है ,फिर रूह तक जाता है। 
सैक्स पर कोई बात नहीं करना चाहता। हम जिस समाज में रह रहे हैं, वँहा सैक्स दबाकर रखा जाता है जिस कारण बलात्कार होते हैं, कत्ल होते हैं। बलात्कार ना हो इसके लिए वेश्यालय खोल दिए हैं पर लोगों को प्रेम से वँचित कर दिया गया है।
ओशो ने प्रवचनमाला बोली , "संभोग से समाधि की और", लोगों ने  इसे बिना पढ़े विरोध किया। मैनें वह किताब पढ़ी है, यह सैक्स को समझने के लिए बहुत जरूरी है। 

आम आदमी देह तक रुक जाता है, वेश्याओं के साथ बैठकर शराब पीता है, सिगरेट पीता है और जितने भी उल्टे सीधे काम करता है पर वह अपने घर पर शरीफ बन कर रहता है। दोगले शरीफ लोगों की असलियत इन कोठों पता चलती है।

"गंगूबाई ", संजय लीला भंसाली की फिल्म है। 
यह फिल्म सच्ची कहानी है, एक वेश्या जो वेश्यावृत्ति को कानूनी दर्जा दिलवाने के लिए जवाहरलाल नेहरू से मिली। एक ऐसी कहानी है जो हमारे समाज का वह वाला आईना पेश करती है जिसे कि हम रात के अंधेरे में  बंद कमरों में ही रखना चाहते हैं।

आलिया भट्ट और अजय देवगन की कमाल की एक्टिंग। संजय लीला भंसाली ने हमेशा की तरह बेमिसाल सैट लगाया, जिसमें ईस्टमैन कलर का रंग है।
 एक किताब आई है ,"माफिया क्वीनज़ ऑफ मुंबई",  इसमें गंगूबाई का जिक्र भी है। यह हुस्सैन ज़ाईदी की लिखी हुई है।
यूं तो फिल्में मनोरंजन का साधन है पर कुछ फिल्में समाज का पर्दाफाश करती हैं। हमेशा मनोरंजन नहीं बल्कि सच के साथ रूबरू होना भी ज़रूरी है। 
गंगूबाई ने वेश्याओं के बच्चों को पढ़ने का हक दिलवाने का कार्य किया।
उसमें यह सवाल भी उठाया गया, कि समाज के शरीफ़ कहलाने वाले लोग रात के अंधेरे में उनके कोठे पर तो आ सकते हैं, पर उन वेश्याओं को बैंक में खाता खोलना, समाज में पढ़ने का हक, ... जो आम आदमी के हक हैं वो उनके पास नहीझ है, उन सब हकों के लिए लड़ने का काम गंगूबाई ने किया। 

"अमर प्रेम" , फिल्म का गीत है
कुछ तो लोग कहेंगे 
लोगों का काम है कहना 

हमको जो ताने देते हैं 
हम खोए हैं इन रंग रलियों में ,
हमने उनको भी चुप चुप के
आते देखा है गलियों में,
यह सच है झूठी बात नहीं
तुम बोलो यह सच है ना
 

फिल्म में साहिर लुधियानवी की नज़्म है,
"जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां है"


ये कूचे, ये नीलामघर दिलकशी के 
ये लुटते हुए कारवां ज़िन्दगी के 
कहां हैं, कहां है, मुहाफ़िज़ ख़ुदी के 
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं 

ये पुरपेच गलियां, ये बदनाम बाज़ार 
ये ग़ुमनाम राही, ये सिक्कों की झन्कार 
ये इस्मत के सौदे, ये सौदों पे तकरार 
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं

ये सदियों से बेख्वाब, सहमी सी गलियां
ये मसली हुई अधखिली ज़र्द कलियां
ये बिकती हुई खोखली रंग-रलियां
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं

वो उजले दरीचों में पायल की छन-छन
थकी-हारी सांसों पे तबले की धन-धन
ये बेरूह कमरों में खांसी की ठन-ठन
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं

ये फूलों के गजरे, ये पीकों के छींटे
ये बेबाक नज़रें, ये गुस्ताख फ़िकरे
ये ढलके बदन और ये बीमार चेहरे
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं

यहां पीर भी आ चुके हैं, जवां भी
तनोमंद बेटे भी, अब्बा, मियां भी
ये बीवी भी है और बहन भी है, मां भी
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं

मदद चाहती है ये हव्वा की बेटी
यशोदा की हमजिंस, राधा की बेटी
पयम्बर की उम्मत, ज़ुलेयखाँ की बेटी
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं

ज़रा मुल्क के रहबरों को बुलाओ
ये कुचे, ये गलियां, ये मंजर दिखाओ
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर उनको लाओ
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं



जब आदमी के जीवन में प्रेम का आ जाएगा ,यह वेश्यालय धरती से विदा हो जाएंगे और युद्ध भी, क्योकिं क्रोध और सैक्स के दमन से ही युद्ध होते हैं। 

फिर मिलूंगा एक नयी फिल्म लेकर।
आपका अपना।
रजनीश जस
रूद्रपुर, उत्तराखंड
निवासी पुरहीरां,
होशियारपुर, पंजाब
29.04.2022



 

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