डिप्रेशन एक अलग किस्म की बीमारी है, बाकी बीमारियां दिखाई देती है, पर यह दिखाई नहीं देती। आम बीमारियों का इलाज होता है पर डिप्रेशन भी एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज भी संभव है।
डिप्रेशन जो कि दिखाई नहीं देता पर जिसके साथ घटित हो रहा होता है उसको लगता है मैं दुनिया में बिल्कुल अकेला हूं। इसीलिए दोस्तों का होना बहुत जरूरी है।
मैं कई बार डिप्रेशन में गया हूं । एक बार महीने का आखिरी दिन था तो मैंने लिखकर लगा कि जैसे महीने का आखिरी दिन है वैसे ही मेरी ज़िन्दगी का भी आज आखिरी दिन है। पर मैंने अपने दोस्तों से बात की थी।
कई बार यह बीमारियां मां बाप से विरासत में मिल जाती हैं, कई बार अकेलापन ज्यादा होता है, कई बार हम वह पढ़ाई कर रहे होते हैं या उस प्रोफेशन में काम कर रहे होते हैं जिसमें हमारा दिल नहीं लग रहा होता.... इसके और भी बहुत सारे कारण है।
बीमारी के बारे में तो काफी बातें हो गई तो मैं इसका इलाज के बारे में बात कर कर रहा हूं। मैं जब भी डिप्रेशन में गया मैंने एक काम पक्का किया मैं कोई ना कोई किताब पढ़ता रहा। पहली बार में मैंने ओशो के एस धम्मो सनंतानो ( महात्मा बुद्ध के शलोक की व्याख्या), फिर एक ओंकार सतिनाम, गुरू नानक देव जी की जपुजी साहब की व्याखया), हरमन हैस्स का नावल सिद्धार्थ, रांडा बर्न की किताब रहस्य।
पर मैं अकेला नहीं बैठा ,संगीत सुना, होम्योपैथी की दवाइयां ली, दोस्तों से बात की, योगा प्राणायाम करता रहा ।
एक बार तो मैं इतना ज्यादा निराश हुआ मुझे लगा कि ज़िन्दगी में आगे सिर्फ काली दीवार है उसके आगे कुछ भी नहीं है। मैं अपने ही जीवन को खत्म कर लूं क्योंकि जीवन जीने लायक कुछ है ही नहीं।
मुझे आज भी याद है मैं बाबा बिसाखा सिंह चैरिटेबल हॉस्पिटल , रुद्रपुर गया। हॉस्पिटल बंद होने का समय हो चुका था। मैं उनके टेबल पर सिर रख कर रो पड़ा। डाक्टर साहब मुस्कुराए और उन्हें मुझे कहा कोई बात नहीं बेटा जल्दी ठीक हो जाएगा।
फिर भी उन्होंने मुझे एक दवाई दी जिससे कि मैं कुछ दिनों में राहत महसूस हो गई। मुझे लगता था मैं नौकरी नहीं कर पाऊंगा, पर मेरी पत्नी ने मेरा बहुत साथ दिया। उसने किसी भी रिश्तेदार के साथ यह बात नहीं की। उसने कहा तुमसे अगर नौकरी नहीं होती तो मत करो, कोई दिक्कत नहीं हम लोग किसी भी तरीके से अपना गुजारा कर लेंगे पर तुम अपने जीवन के साथ कुछ गलत काम मत करना।
मेरा यही मानना है कि किताबें, संगीत ,दोस्तों का होना, प्राणायाम , यह चीजें हमें विरासत में अपने बच्चों को देनी चाहिए। जैसा कि आजकल वह मोबाइल और टीवी और गैजेट के जरिए दूसरी दुनिया से ढूंढने की कोशिश तो करते हैं पर अपना दुख कहने के लिए उनके पास कोई अच्छा दोस्त नहीं है। हमें उन्हें हार को स्वीकार करने की भावना विकसित करनी चाहिए।
हार जीत, सुख दुख... यह सब जीवन के अटूट हिस्से हैं, किसी एक हिस्से से हम नहीं जी सकते।
# रजनीश जस,
रूद्रपुर, उत्तराखंड