Tuesday, November 26, 2019

मौजूदा समाज में एल्डस हक्सले के नावल ब्रेव निऊ वल्ड की प्रसांगिकता

कुछ दिनों पहले गली में तौलिये  में बेचने के लिए एक आदमी आया।  वो  तौलिए के 80 रुपये दाम बता यहा  था और लोगों ने 50 तक खरीद लिए । अगर यही तौलिया शोरूम को बिके तो बहुत महंगा होगा।  कई लोगों ने 40 में भी खरीदा। ये तौलिए  गांव की महिलाएँ हाथ से बनाती हैं और कुछ लोग शहर में आते हैं और इसे बेचते हैं।


यह सब देखकर, मुझे फिल्म "मटरु की  बिजली का मंडोला" का डायलॉग याद आ गया।
खाली ज़मीन  को देखकर एक मंत्री किसी उद्योगव्यक्ति से बात करता है, वहाँ बहुत बड़े कारखाने लाए जा सकते हैं। उद्योगव्यक्ति  बोला, तब तो लोग इसमें काम करके अमीर बन जाएँगे। तो मंत्री हंस कर कहता है, नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं होगा। हम पास में एक बिग बाजार बनाएंगे, शराब के ठेके , पिज्जा हट , डिस्को बार खोलेंगे। वो काम करने के बाद अपने मनोरंजन के लिए वहां पर जाएंगे और सारे पैसे वहीं पर खर्च देंगे।
 जो कि काम करने वालों लगेगा वो कमा रहे हैं, पर वो  पैसे को हमारी जेब में दोबारा लौट आएगा।

यही है, आजकल टैक्सी हम मोबाइल पर बुक करते हैं, अब हम ऑनलाइन बुक करते हैं और घर आर्डर करते हैं। सब कुछ बैठे बिठाए होने लगा  है।  पैसा आम आदमी के पास  आने की बजाय  पूंजीपतियों के हाथ में जा रहा है
धीरे-धीरे हम मशीन से इतने अधिक मोहग्रस्त हो गए हैं कि इसके बिना जीना बहुत मुश्किल हो गया है।
मुझे याद है कि मैंने ऐल्डस हक्सले के उपन्यास "द ब्रेव न्यू वर्ल्ड"   टेंथ क्लास में पढ़ा था, मैं बहुत प्रभावित हुआ और कई दिनों तक मैं एक अजीब सोच में डूबा रहा।
यह उपन्यास आजकल सही साबित हो रहा है। इस उपन्यास में बच्चे, एक लेबारट्री की टेस्ट ट्यूब पर पैदा किए जा रहे थे। एक व्यक्ति यह सब देखता है। टेस्ट टिऊब में पैदा होने वाले लोग खुश रहने के लिए सोमा नाम की एक दवा खाते हैं। एक श्रमिक वर्ग है, एक प्रबंधक है। अगर प्रबंधक किसी कार्यकर्ता को थप्पड़ भी मारता तो वह विरोध नहीं करता।
वो विद्रोही व्यक्ति कहता है कि यह सही नहीं है   डॉक्टर कहता है इससे शहर में शांति बनी रहेगी। वह सभी डॉक्टरों के साथ बहस करता है।

अंत में, विद्रोही आदमी की गोली मारकर हत्या कर दी जाती है।
 तब यह कहा जाता है कि अब एक नया संसार पैदा हो गया है जिसका नाम है ब्रेव न्यू वर्ल्ड ।क्योंकि लगभग सारे लोग मशीनों जैसे हो गए है जिनके दिल में कोई भावना ही नहीं है।

यह उपन्यास लगभग 1910 में लिखा गया था लेकिन यह आज भी प्रासंगिक है।
 मेरा कहना है, हम मशीनों का उपयोग ज़रूर  करें , पर मशीनों को अपना मालिक ना बनने दें। क्योंकि अगर मशीन हमारी मालिक बन गईं तो हम सारा जगत भावनाविहीन हो जाएगा।

 यहां पर यह बताना जरूरी होगा कि एल्डस हक्सले ने  सिनेमा के आने पर यह कहा था कि आदमी की सोच को खत्म करने वाला पहला यंत्र आ गया है। रेडियो की खोज और टीवी कोड पर भी उसने यही कहा था।

 अगर देखा जाए मानव और मशीन में यही फर्क है तो मशीन कुछ महसूस नहीं करती,  वह सिर्फ एक निर्देश का पालन करती है।  ओशो कहते हैं आदमी में बहुत सारी संभावनाएं हैं। हर बच्चा एक बुद्ध  बनने की संभावना लेकर पैदा होता है। उसको अगर सही राह मिले तो वह  बुद्ध बन सकता है।  पर मशीन में ऐसा कुछ भी नहीं है,  वो मशीन है और मशीन ही रहेगी।


मैं निराश नहीं हूं मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि जब भी कोई रेहडी वाला या हस्तशिल्प अपना समान बेचे,  तो हम उन्हें उचित मूल्य दें।
हम बिग बाजार में ब्रांडेड सामान खरीदने के लिए जाते हैं, वँहा एक भी रूपया कम नहीं होता,पर हम 5 या 10 रूपये के लिए रिक्शा वाले से बहस करने लग जाते हैं।

मैं अपने आस-पास के लोगों, पति-पत्नी दोनों को संघर्ष करते हुए देखता हूं।  मकान की किश्तों और बच्चों की पढाई  में एक मध्यम वर्गीय परिवार 20 साल तक कर्ज़ में डूब जाता है। उसे जीवन जानने का,इसकी खूबसूरती का, इसके सौंदर्य का पता ही नहीं चलता।
भारत जैसे देश में 99% ऊर्जा सिर्फ और सिर्फ जीवन की मूलभूत जरूरतों को पूरा करने में ही निकल जाती है।

मध्यवर्गी लोगों के हाथ पैसा आता तो है, लेकिन फिर घूम फिरकर  पूंजीपति के हाथ में चला जाता है।

फिर भी, मैं बेहतर भविष्य की कामना करता हूं।

रवींद्रनाथ टैगोर कहते हैं,
"हर नवजात शिशु भगवान के आशावान होने का प्रतीक है।"
इसलिए हम  एक अच्छे भविष्य की आशा करते हैं।

एक गीत की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं

इन काली सदियों के सर से
जब रात का आंचल ढलकेगा
जब अंबर झूम के नाचेगा
जब धरती नग्मे गाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
वो सुबह कभी तो आएगी

# रजनीश जस
रुद्रपुर
उत्तराखंड
#rajneesh_jass
27.11.2019